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Tuesday, April 20, 2010

mujhe darr hai......

मौसम  की  बेरुखी   में  खुद  को  छुपाते
तो  कभी  बुझी  राख  की  ढेर  में  गर्माते
कभी  ठंडी  सुखी  हवाओ  से  बचकर
तो  कभी  ओस  से  भीगी  पत्तियों  के  लेके  साए
मैंने  उसे  ठण्ड   से  लड़ते  देखा  था
वो  तनहा  ही  प्रकृति  के  आगे  खड़ा  था
ठण्ड  गरीबी  और  अपनी  लाचारी  जैसे
कठोर  और  बलिष्ठ  दुश्मनों  से
वो  अकेले  आखिरी  सास  तक  लड़ा  था

पर  सायद  फिर  भी  वो  खुश  था
गौरवान्वित  था  अपनी  खुद्दारी  पे
संभवतः  ये  ख़ुशी  एक  व्यंग्य  थी
एक  ताना  था  उसकी  लाचारी  पे

उस  मृत  की  जीवंत  मुस्कान  एक  ताना  थी
उस  गरीबी  बेबसी  लाचारी  पे
जो  जीते  जी  उसे  रुला  न  पाई
वो  अविरल  हंसी  एक  सवाल  थी
निरंतर  बढती  अर्थव्यवस्था  से
जो  उसे  दो  जून  रोटी  खिला  न  पाई

यह  वाक्य  एक  कलंक  था  हर  उस  शख्स  पे
जो  ऐश  और  सुकून  जुटाने  की  दौड़  में
किसी  को  भूखा  और  नंगा  छोड़   देते  है
झूठे   दिखावे  में  और  दिखावे  की  होड़  में

इन  अन्धो  के  शहर  में हर  अगले  पल
मानवता  मनो  कलंकित   होती  जा  रही  है
इंसानियत  और  सहानुभूति   जैसे  शब्दों   की
मानो  अहमियत  खोती  जा  रही  है

हद  है  यह  अमानवीयता  की
लोग   आज  भी  भूखे ,नंगे  और  बेघर  है
सदमे  में  न  आ  जाये  उपरवाला  ये  देखकर
मुझे  तो  बस  इस  बात  का  डर  है

"कुमार"
20-04-10

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